15 दिसंबर. छठवां दिन. नर्मदावासी…चंदनघाट. कैटलीना की साझा की गयी पोस्ट से.
आज जब हम लोग परिक्रमा पथ पर बढ़ रहे थे तो मैं सोच रही थी कि आज का दिन शायद बोरियत भरा होगा. पर मैं गलत थी. आज दिन की शुरुआत थोड़ा देर से हुई. देरी का कारण नर्मदावासियों के साथ बैठकर चाय-पीना और बातें करना था.
इस यात्रा में यह हमारे लिए अत्यंत असंभव था कि हम लोगों के चाय के निमंत्रण और उनकी कहानियों को स्वीकार न करें. आज पहले की तुलना में दिन ज्यादा गर्म था और थकान भी. लेकिन फिर भी हम खूब चले.
वैसे आज मन विचार शून्य था. इसलिए आज कुछ नर्मदा के ऊपर संगीत सुनने की कोशिश की. मैं आज बेहद खुश थी और नर्मदा मेरे दायीं ओर थी जो लगातार मुझे उत्साहित कर रही थी.
कुछ समय के बाद मैं काफ़ी थकान महसूस करने लगी और ऐसा लगा की अब शरीर बेजान हुआ जा रहा है. लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैं एक अद्भुत अनुभव महसूस कर रही थी. पर साथ ही कुछ चीज़ों की लालसा हो रही थी.
मैं मिठाइयों, खाने और अपने परिवारिक सदस्यों के बारे में सोच रही थी. इनके जैसे ही मुझे किसी चलती बाइक, कार या किसी और चीज़ को देखने की इच्छा हो रही थी. अचानक लग रहा था कि सबकुछ कितना दूर है!
हम चुपचाप चले जा रहे थे. तभी मैंने अचानक एक अजीब आवाज़ सुनी और हितेश चिल्लाया – “कैटलीना भागो!”
मैं उससे थोड़ा दूर थी लेकिन मुझे वहां से स्पष्ट दिखाई दिया कि एक सांप वहां से गुजर रहा था. वैसे मैं उससे डरी नहीं थी. लेकिन इस घटना ने मुझे चेता दिया और मैं तेजी से चलने लगी.
कुछ दूर चलने पर हमें स्थानीय लोग मिले जिन्होंने जल्द ही सूर्यास्त होने के कारण हमे यात्रा रोकने और आराम करने की सलाह दी. हम थोड़ी देर और चले और फिर रुक गये. अभी अगला पड़ाव शायद दूर था. इस तरह की जगहों में वास्तविक दूरी का पता लगाना कठिन हो जाता है.
मुझे लगा था कि सांप वाली कहानी आज के लिए पर्याप्त होगी. लेकिन कुछ और कहानियां अभी बाकी थीं.
हम लोग चार कुटिया नामक स्थान पर रुके थे. यहां राधा-कृष्ण की एक बड़ी पेंटिंग लगी थी. मैंने हमेशा कहा है कि यह हमेशा जगहों से ज्यादा वहां के लोगों पर निर्भर है कि वो कैसा व्यवहार करते हैं. और यहां भी लोग आकर हमें खाना बनाने की सामग्री और चाय दे गये.
मैं अपना मोबाइल चार्ज करना चाहती थी पर यहां लाईट नहीं थी. मैंने एक ग्रामीण महिला से भी पूछा तो उसने बताया कि उसके यहां इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं है.
मैं वापस आकर अपना काम करने लगी. तभी वो ग्रामीण महिला वापस आती दिखाई दी. उसने गहराई से मेरी आंखों में देखा और फिर मेरे पैर छूकर बोली – “नर्मदे हर! मुझे माफ़ करना मुझे मालूम नहीं था कि आप परिक्रमावासी हैं और मैं झूठ नहीं बोल रही, मेरे घर इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड नहीं है.”
फिर उसने सबके पैर छुए और चली गयी. मैं उसकी खूबसूरत मुस्कान और आंखों को कभी नहीं भूलूंगी.
मैं शायद अतिश्योक्ति कर रही हूँ लेकिन मुझे यकीन है मुझे ऐसे लोग कभी नहीं मिलेंगे. और भारत जैसा कोई और देश नहीं है. हमें यहां भगवान की तरह ट्रीट किया गया और लोग हमेशा स्वागत के लिए लगे रहे.
यहां लोगों का मानना है कि नर्मदा परिक्रमा सबके लिए नहीं होती. क्योंकि यह अत्यंत कठिन है, कम ही लोग इसे पूरा कर पाते हैं. और महिलाएं तो और भी कम.
यहां बहुत ही असाधारण है कि कोई महिला परिक्रमा करे. इसलिए मुझे देखकर वे आश्चर्यचकित थे. मैं जहाँ भी जाती थी लोग मुझे सलाह देते और कई प्रश्न पूछते थे.
हम फिलहाल आग के पास बैठकर सितारों को ताक रहे थे. नर्मदा हमारे सामने थी और रात में उसकी आवाज़ दिल को छू रही थी.
इस समय मैं कह सकती हूं कि नर्मदा जमीन पर नहीं बल्कि अपने लोगों के दिलों से बहती है.
नर्मदे हर!
(नर्मदा की ये यात्रा प्रोजेक्ट गो नेटिव के साथ)
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