घुमंतू लड़की-2: छोटे बालों वाली लड़कियों को लोग इतना घूरते क्यों हैं?

सुबह-सुबह हल्की सी रोशनी में नहाए कमरे में नींद खुली. नींद खुलने पर पहला थॉट ये था कि जिंदगी कितनी छोटी होती है और उस छोटेपन में ही ये कितनी बड़ी है.

प्रियंका जिसके यहाँ मैं आज रुकी हूँ उनसे मैं 2 साल पहले ट्रेन में मिली थी. और वो भी बड़े अजीब तरीके से.

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एक बार अचानक दिल्ली जाना था. रिजर्वेशन था नहीं. मैंने सोचा आम भारतीय ट्रेन यात्री की तरह ही मैं पैनल्टी बनवा के पहुँच जाऊंगी. खैर ट्रेन आई ट्रेन की भीड़ को देख कर लगा नहीं था कि सीट मिलेगी. टीटी से बात की. उन्होंने मेरी मासूम शकल पर दया करके सीट दे दी. अब ये सीट जो मिली थी वो इन्हीं प्रियंका जी और रिम्पी जी की सीट के बगल में थी. उस वक़्त वो शिरडी से वापस आ रही थीं.

कुछ दिनों बाद ही मेरे एग्जाम थे तो मैंने अपनी बुक्स निकाली और पढ़ने लगी. बातचीत का दौर कहाँ से शुरू हुआ ये तो याद नहीं लेकिन हम पेशेंट्स, इमरजेंसी केसेस और पढ़ाई पर बात करते गए. मैं डॉक्टरी पढ़ रही हूँ और वो नर्स हैं. उत्तराखंड में ही पली बढ़ी हैं दोनों. उनसे बात करते एक सेकंड को भी नहीं लगा कि कुछ घंटे पहले ही मुलाकात हुई है इनसे. वाइब्स का असर होता है ये उस दिन और भी समझ आया.

अमूमन ऐसी बातचीत हो तो जाती है ट्रेन में. लेकिन सफ़र के ख़त्म होने के बाद भी हमारी बातचीत चलती रही. ऐसे में एक साल पहले भी प्रियंका ने मुझे अपने घर भीमताल पर होस्ट किया था. दुनिया बुरी है का जुमला मुझे हमेशा से अजीब लगता रहा है. परिस्थिति कुछ खराब या बुरी हो सकती हैं पर इस कारण सब अच्छाई को भूल जाना अच्छी बात तो नहीं है ना!

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सुबह के करीब 8 बजे चुके हैं. प्रियंका और उसकी सहेली दोनों जल्दबाज़ी में हैं. मुझे अपने कॉलेज के दिन ऐसे में याद आ जाते हैं जब 10 बजे की क्लास के लिए मैं और मेरी सहेलियां कितनी हड़बड़ी मचाते थे. मेरी दोस्त ने ब्रेकफास्ट में आलू के पराठे बनाये हैं.

सुबह 9 बजे से उसका कॉलेज है इसलिए उसे जल्दी निकलना होगा. हल्द्वानी प्लेन पर है, फिर भी ठण्ड काफी थी. मैंने सोचा है एक बार हल्द्वानी भी घूम लिया जाए. ब्रेकफास्ट कर लेने और प्रियंका के कॉलेज निकलने के बाद मैं भी निकल पड़ी एक और शहर से दोस्ती करने.

हल्द्वानी बड़ा सा शहर है जिसके आस पास फैली छोटी छोटी पहाड़ी उसे और खूबसूरत बना देती है. शेयरिंग वाले ऑटो के शोर से रास्ते गूंजते हैं. आम शहर सा नजारा. पता नहीं क्यों मुझे सारे शहर एक से लगते हैं. कई बार तो ऐसा होता है कि लगता है बस नाम का अन्तर है बाकी सब कुछ वैसा का वैसा है. हल्द्वानी भी ऐसा ही लगा मुझे.

बस स्टैंड और आस पास की शहरी चीजों से बोर हो कर मैं वापस एक जगह ढूंढने लगती हूँ. प्रियंका के घर का मेन सिटी से दूर होने का फायदा यह मिला कि एक पार्क में बैठ कर मुझे ये दर्ज करने का माहौल अच्छा मिल गया. मेरे सामने छोटे छोटे से पहाड़ हैं. ठंडी हवा है जो गालों को छू कर अलग ऊर्जा दे जाती है. शहर के शोर से दूर यहाँ चिड़ियों का कलरव गूँज रहा है. कुछ खुश मुस्कुराते चेहरे हैं जिनको देख कर दिल और खुशदिल हो गया है. मैं इन सब को महसूस कर अलग ऊर्जा से भर जाती हूँ.

हल्द्वानी और काठगोदाम के बीच कुछ ही किलोमीटर की दूरी है.

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काठगोदाम के नाम से मुझे अजीब सी ख़ुशी मिला करती है. अमूमन मैंने सीरियल नहीं देखे पर चैनल V पर आने वाला ‘सुवरीन गुग्गल टॉपर ऑफ़ द इयर’ मुझे बेहद पसंद था. उस सीरियल की सुवरीन काठगोदाम से थी. मुझे याद है ये सीरियल देखते वक़्त मैं सोचती थी कैसी जगह होगी ये काठगोदाम. और पिछले साल जब मैं वाकई काठगोदाम रेलवे स्टेशन के बाहर थी तब लगा था कि क्या ये सपना है! क्या वाकई मैं काठगोदाम में हूँ. मुझे वो फीलिंग अभी भी याद है.

पहाड़ों में किया सफ़र तब और प्यारा हो जाता है जब आप हवाओं को छू कर गुजरो. जब हवा का बहाव आपके बालों को बिखेर जाता है. ठंडी हवा नाक को हल्का लाल कर जाती है. और फिर अचानक सूरज की गरमाहट एक ठहराव दे जाती है. जब एक सरसराहट गूंजती रहती है कानों में. यूँ तो ऐसे में एक निजी वेहिकल का मिलना मुश्किल काम था इधर, लेकिन मैं लकी थी कि ऐसा सफ़र मिल गया मुझे. रिम्पी के साथ मुझे भीमताल तक जाना है. जहाँ 2 दिन रुक कर मैं अल्मोड़ा निकल जाऊंगी.

दोपहर के 1 बज चुके हैं और रिम्पी अभी भी रास्ते में है. यूँ ही हल्द्वानी घूमते हुए मैं वापस घर की ओर जा रही हूँ. तभी एक सफ़ेद सी बिल्ली मेरे पैरों के पास आती है और मैं उसे दुलार कर निकल जाती हूँ.

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रिम्पी के आने के बाद मैं वापस अपना बैकपैक रेडी कर चुकी हूँ. बाइक का सफ़र है तो हवा से बचने के लिए 1 स्वटेर और एक जैकेट पहन रखी है. हल्द्वानी से भीमताल के पूरे रास्ते मैंने खूब जिया खुद को. यूँ हवा का ऐसे छू जाना एक किस्म का ध्यान है मेरे लिए.

पहाड़ आ कर गर पहाड़ी चाय नहीं पी तो क्या किया!!

एक चाय की दुकान पर गाड़ी लगा दी गयी. कुछ देर सुस्ताने के बाद वहां भजिये और चाय आर्डर की गयी. चाय का वो स्वाद धूप की गुनगुनाहट में और बढ़ गया.

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कई सारे पुलों को पार करते और नदियों के साथ साथ चलते करीब डेढ़ दो घंटे में हम पहुँच जाते हैं भीमताल.

भीमताल के कम्युनिटी हेल्थ सेण्टर में रिम्पी की ड्यूटी है. हम दोनों वही पहुँच जाते हैं. हॉस्पिटल में 2 डिलीवरी केस हैं. ठण्ड काफी बढ़ी हुई है भीमताल में. शाम करीब पौने 4 बजे मैं निकल जाती हूँ भीमताल के रास्तों से दोस्ती करने. झील के किनारे चलते रहने में जो सुकून महसूस हो रहा था बस मन कर रहा था कि ये वक़्त कैसे भी रुक जाए. पर वक़्त को तो कोई नहीं रोक सकता. आगे चलते कुछ लोग रास्ते में दिखे. कुछ सजे धजे हनीमून कपल हाँथ थामे चलते जा रहे थे. कुछ और लोग भी आस पास चहलकदमी कर रहे थे.

चलते हुए मैं काफी दूर निकल आई थी जब मैं थक गयी तो मैंने लिफ्ट ली और पहुँच गयी भीमताल लेक.

भीमताल मैं पिछले साल आ चुकी थी तो मुझे पता था इस जगह के बारे में. यहां लेक के किनारे छोटा सा पार्क बना है. कुछ बेंचेस लगी हैं जहाँ. इस पार्क पर बैठ कर मैं आज के दिन का ब्यौरा दर्ज करती हूँ. मुझे सिर्फ 24 घंटे हुए हैं लेकिन यहाँ ऐसा सुकून है कि लगता है मैं काफी वक़्त से यहां हूँ.

भीमताल में वैरायटी रेस्त्रां के सामने एक तिराहा है जहां से हल्द्वानी, काठगोदाम, नोकुचियाताल, भवाली के लिए रास्ते जाते हैं. आते जाते गाड़ियां सवारियों के लिए इसी जगह रुकती हैं. भरी हुई जीप से लोग बाहर को झांकते हैं. कुछ एक सेकंड बाद तक भी जरा देर तक देखते हैं, शायद लड़कियों को अकेले देखने के आदी नहीं हैं यहां के लोग खासकर टूरिस्ट प्लेसेस पर. ऊपर से मेरे छोटे बाल. पता नहीं क्यों छोटे बालों वाली लड़कियों को लोग ज्यादा घूरते हैं. मैंने ये हल्द्वानी में भी नोटिस किया और यहां पर भी.

मेरे सामने ढलता सूरज है. अभी सिर्फ 4.30 ही हुए हैं और सूरज मेरे सामने से ओझल हो चुका है. ठंड बढ़ रही है. एक कप चाय की तलब में मैं कुछ दूर और चल देती हूँ.

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बोटिंग लेक शाम 5 बजे.

सूरज ढल चुका है. मेरे चारों और ढेर सारी धुंध फैली है. पर फिर भी इस धुंध में प्रकृति की कलाकारियाँ साफ़ नजर आ रही हैं. बोटिंग लेक के किनारे सीढ़ियों पर मैं अकेले अपनी डायरी लिए बैठी हूँ. मेरे आस पास कुछ जोड़े हैं. कुछ ग्रुप्स हैं दोस्तों के. सामने लेक में लाइन से लगी नाव भी हैं. नाव वाले लोग मुझे देखते हैं. मैं उनकी और देख कर मुस्कुरा देती हूँ. आसपास के लोगों की नजर मुझे अकेले डायरी में कुछ लिखते देख अलग जान पड़ रही है.

धुंध बढ़ रही है. आहिस्ते आहिस्ते… ऐसे जैसे किसी चित्र के सामने उबलती चाय की केतली से भाप निकल कर छा गयी हो. झील के पानी में हवा के बहाव से बनती लहरें. जलते हुए लकड़ी के टुकड़ों की महक जेहन में शाम के सन्नाटे की तरह समाती जा रही है.

पूरा शहर धुंध की चादर में ऐसा समा गया है कि मुझे सामने की सड़क भी ठीक से नजर नहीं आ रही. बीच बीच में गाड़ियों का शोर और आस पास के लोगों की बात करने और खाँसने की आवाज जंगल में गाते झींगुरों की आवाज़ को दबा जाती है.

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पहाड़ों में इतनी शांति ऐसी अजीब होती है कि आपको अपनी साँसें भी सुनाई देने लगती है. एक सूं सा सन्नाटा कान के चारों ओर चीखता है. ठण्ड इतनी बढ़ गयी है कि मेरे हाँथ आगे लिख नहीं पा रहे हैं. उँगलियों जैसे अकड़ गयी हैं. अँधेरा होने को है मैं वापस भीमताल कम्युनिटी हॉस्पिटल की ओर निकल पड़ती हूँ.

ठण्ड और 2 बार चाय पीने का असर ये था की मुझे पब्लिक टॉयलेट के लिए काफी परेशान होना पड़ा. जो दिखे भी वो बेहद बदतर थे. भीमताल में मुझे एक भी साफ पब्लिक टॉयलेट नहीं मिला. एक लड़की के लिए सबसे बड़ी समस्या यही होती है. आखिर में एक हॉटेल में मैंने वाशरूम इस्तेमाल करने के लिए कहा.

वहां के अटेंडेंट ने मुझे कहाँ सॉरी मैम ये गेस्ट के लिए ही है.

ये ऐसी चीज थी कि मेरा माथा ठनक गया. फिर गुस्से में मैंने उसे कहा कि आप या कोई भी 5 स्टार होटल तक वाशरूम इस्तेमाल करने से रोक नहीं सकते. उसने बाद में सॉरी बोला और मुझे टॉयलेट इस्तेमाल करने दिया. पता नहीं इतनी बेसिक सी चीज क्यों ये नहीं समझते.

इन सब के बाद फिर 5-6 किलोमीटर तक पैदल चलते रहने के बाद जब मैं बेहद थक गयी तब सोचा कोई ऑटो मिल जाये. पर आखिर में मैंने एक फिर से लिफ्ट ली. मजेदार बात ये हुई कि मैं रास्ता भी भटक गयी थी. मुझे रास्ता नही मालूम था. और कम्युनिटी हॉस्पिटल एकदम अलग दिशा में था. मुझे जिस लड़के ने लिफ्ट दी थी उसने मुझे हॉस्पिटल तक ड्रॉप किया जबकि वो कहीं और जा रहा था. रास्ते में उसने मुझसे पूछा आप कहाँ से हैं. मैंने बताया कि मैं मध्यप्रदेश से यहां घूमने आयीं हूँ. आखिर में मैंने उसे शुक्रिया कहा और हॉस्पिटल निकल गयी.

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डिलीवरी का वो केस अभी तक था. शाम के 7 भी बज चुके थे. मैंने इससे पहले अपने डर के कारण लाइव डिलीवरी नहीं देखी थी. वो महिला दर्द में थी और उसे 2 या 3 घंटे इससे भी ज्यादा दर्द झेलना था. सर्विक्स और खुल जाए इस लिए उसे लगातार टहलना पड़ रहा था. कितना अजीब होता है ना ये सब. ये सब मुझे थोड़ा डरा रहे थे. पर “हिम्मत-ए-मर्दा तो मदद-ए-खुदा”.

मैंने पूरी हिम्मत के साथ डिसाइड किया कि ये डिलीवरी मैं देख कर ही जाऊंगी. रिम्पी बहुत कुशल नर्स हैं पूरे क्षेत्र की. वैसे तो शाम 8 बजे उनकी ड्यूटी खत्म हो जाती है पर उस महिला के परिवार वाले बहुत डरे थे और वो बस रिम्पी से रिक्वेस्ट कर रहे थे कि वो ये डिलीवरी करा कर ही जाएँ. एक डॉक्टर को भगवान का दर्जा यूँ ही नहीं मिला है. और अगर डॉक्टर भगवान है तो नर्स उनका दायां हाँथ. ये मैंने देख लिया आज.

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रात के करीब 9 बजे तक भी जब वो महिला बच्चा डिलीवर नहीं कर पायी तो मैं और रिम्पी जरा घबरा गए. ऐसा लगा कि बच्चा ब्रीच है. ब्रीच मतलब ऐसे बच्चे जो कि उल्टे पैदा होते है. ऐसा लगने पर तुरंत हमने उसे हल्द्वानी रेफेर कर दिया. पूरे रास्ते मैं और रिम्पी उस बच्चे की सलामती के लिए प्रार्थना करते गए. ये ऐसी स्थिति कि कुछ भी हो सकता था. बच्चे की हार्टबीट वैसे भी लो थी.
आखिर में एक और दिन की रात हो चुकी थी.

रात में ठण्ड इतनी ज्यादा थी थी 2 रजाई ओढ़ने के बाद भी कँपकँपी छूट रही थी. ऐसे में रिम्पी ने ब्लोअर को कुछ देर के लिए रजाई के अंदर चला दिया.

अब कल के सफर के लिए नींद की जरुरत है मुझे…!

अकेले घूमने निकली लड़की के घुमंतू किस्से

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