नर्मदा परिक्रमा: 9वां दिन. डिंडौरी से सक्का, दूरी – 21 कि.मी.
आज के दिन सबसे कम घटनाएं हुईं लेकिन फिर भी सचिन और कैटलीना ने इतना कुछ देख लिया है कि वो इस पर एक लंबा लेख लिख सकें. इस समय मैं कुछ भी महसूस नही कर पा रहा हूं.
आज हमने नदी के किनारे को छोड़ दिया है और हाईवे पर चल रहे हैं. इस हवादार और बादलों से भरे दिन में, मैं सामने कुछ भी नहीं देख पा रहा हूं. सूखी जमीन बेजान लग रही है और लोग भ्रांति के जाल में उलझे हुये प्रतीत होते हैं. (उन लोगों में एक मैं भी हूं)
आगे चलने पर सड़क किनारे एक लड़की को रोते हुये देखा तो इच्छा हुई कि उसे गले लगाकर सांत्वना दूं. लेकिन भारत के एक छोटे कस्बे में ये करना मुश्किल है. यह बेहद अजीब है कि एक तरफ तो हम मां के रूप में नर्मदा को पूजते हैं. वहीं दूसरी तरफ हमारी स्त्रियां, पुरुष प्रधान संस्कृति द्वारा दी पीड़ा झेलने को बाध्य हैं.
अब मैं यहां के लोगों द्वारा रोज दिये जाने वाले भोजन और चाय को लेकर इम्यून हो गया हूं. यह इस जगह की खासियत है. और अब यह यहां की संस्कृति का एक हिस्सा हो गया है. यहां के बच्चे परिक्रमा वासियों को दिये जा रहे सम्मान को देखकर बड़े होते हैं. और यह सम्मान की भावना उनमें अपने आप आ जाती है. लेकिन मुझे इसमें एक समस्या दिखाई पड़ती है. वो यह है कि जैसे मुझे जो मिल रहा है उसके लिए मैं अब सामान्य महसूस करने लगा हूं. उसी तरह यह लोग भी सेवा करते – करते सामान्य महसूस करने लग जाएंगे.
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इस तरह के आदान-प्रदान में सजगता और संवेदनशीलता कम हो जाती है. वहीं अंधविश्वास कुछ समय के लिए अच्छा हो सकता है. परंतु अगर हम संस्कृति का पुनरावलोकन नहीं करते तो हमारी चेतना में वृध्दि रुक जायेगी और अंततः हमारी संस्कृति लुप्त हो जायेगी.
हम बहुत विडंबनाओं के साथ जीते हैं और कई चीजों को बिना तर्क के स्वीकार कर लेते हैं. हम लोगों से कहते हैं कि वो छड़ी से कीचड़ साफ़ न करें क्योंकि छड़ी में नर्मदा मैया उपस्थित हैं. हम कमंडल में नर्मदा मैया की फोटो रखकर, सफेद कपड़े पहन कर उसकी परिक्रमा करते हैं. जबकि नर्मदा मैया हमारे ठीक बगल से गुजर रही है और हम कभी भी इन कारणों की पड़ताल नहीं करते.
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भक्ति का मार्ग कठिन है और बिना ध्यान, कर्म और ज्ञान के भक्ति को पाना मुश्किल है. इस सफ़र में मैं एक संन्यासी से मिला जो ‘शिव’ को ठीक से समझा नहीं पाया. मैं एक वृद्ध महिला से मिला जो एक हाथी की मूर्ति के पैरों के बीच से गुजर रही थी. जिसका कि उसे कारण भी मालूम नहीं था. मैंने कई बाबाओं से पूछा कि नर्मदा परिक्रमा 03 साल, 03 महीने और 13 दिन में ही क्यों पूरी की जाती है? इसका संतुष्टिदायक जवाब कोई भी नहीं दे पाया.
मुझसे बिना कोई संदेह लगातार एक पवित्र व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जा रहा था. मैं शायद एक अपराधी भी हो सकता था. या मैं और भी कुछ हो सकता था. लेकिन इनके अनुसार मैं पवित्र हूं. मुझे तो अभी तक यह भी नहीं पता है कि मैं परिक्रमा क्यों कर रहा हूं? फिर भी क्यों मुझे बहुत प्यार और सहयोग मिल रहा है. बस इसलिए कि मैया ने मुझे इस रास्ते के लिए चुना है. यह सब यहां के लोगों की सोच में गहरा बैठ गया है और मैं इस बात के लिए निश्चिंत हूं कि लोग परिक्रमा वासियों की सेवा करके अपने पापों का प्रायश्चित करते हैं. लेकिन घर जाकर फिर वही पाप करते होंगे. यह पूरी क्रिया एक सिस्टम बन गयी है. और अब बस उसका चक्र चलता रहता है.
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पिछली लगातार 8 रातें हमने मंदिर, आश्रम या किसी घर में गुजारी. वे सब व्यवस्थित और साफ थे लेकिन किसी में भी टॉयलेट नहीं था. कुछ बाबाओं के चार आश्रम थे, उनके अनुसार वो 250 साल से भी ज्यादा पुराने थे.
कुछ बाबा अपने लिंग पर तलवार बांधकर तलवारबाजी कर सकते थे, कुछ आश्रमों में ईश्वर नाम जाप कभी बंद नहीं होता था. लेकिन इन भगवान के प्यारे भक्तों ने कभी भी नहीं सोचा कि टॉयलेट बेहद जरूरी है और वो भी खासतौर से बच्चों, महिलाओं, बूढ़ों, बीमारों के लिए.
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हम सब मानव शरीर से ऊपर उठना चाहते हैं और वो भी बिना यह जाने कि अच्छे इंसान बनने के बाद ही चेतना का रास्ता खुलता है. यहां प्रशंसा करने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू कुछ और है. क्या हम इसलिए निंदा नहीं करें कि सबकुछ ठीक है और हमारे पक्ष में है?
(नर्मदा परिक्रमा प्रोजेक्ट गो नेटिव के साथ )
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One thought on “‘रोती हुई उस लड़की को मैं गले लगाना चाहता था लेकिन…’”