पहाड़, झरना और बादलों का स्पेशल कॉम्बो है ये जगह

हां तो भक्तजनों!
काफ़ी लंबा वक़्त हो गया था और अपुन झोला उठा के कहीं गया ही नहीं. सावन शुरू हो गया था. उधर कांवड़िये अपना बोल बम की तैयारी कर रहे थे, इधर अपुन बैकपैक की तैयारी में लगे थे. उधर कांवड़ियों ने डीजे रेडी किया और तिरंगा लहराते सड़क पर निकले, इधर अपुन ने अपना झोला उठाया, काला चश्मा लगाया और निकल लिए ट्रेक यात्रा पे. बस वाले ने रास्ते भर वही गाने सुनाए जिनका कांवड़िए रीमेक वर्जन सुनते हैं.

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लेकिन बिना प्लान के जो प्लान बनता है ना वो होता गज़ब है. तो होता ये है कि जाना था जापान और पहुंच गए चीन. मलतब जाना था स्पीति और पहुंच गए मनाली. दिल्ली से बस पकड़ी और ऐसी पकड़ी की छूटी ही नहीं. सीधे 16 घंटे बाद मोहभंग हुआ. जब लगने लगा था कि या तो भाई पहुंचा ही दो या रस्ते में ही उतार तो कहीं. यहां आई वाज़ फीलिंग जेलस विद कांवड़िया. अपुन को लगा कि स्याला ये तो कहीं भी भोंपू रोक देता है और आराम करता है.

खैर, एन-केन-प्रकारेण, दिल्ली से मनाली तो पहुंच गए. घूमने जाओ तो जुगाड़ बेहद जरूरी हैं. वरना पइसा बहुत खर्चा होता है और मज़ा आधा हो जाता है. इसलिए अपन ने लगाया जुगाड़ और बुक किया होटल. मस्त एकदम स्नो व्यू वाला. ऐसा व्यू कि देखते ही तबीयत हिमालय हो जाए.

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थोड़ा आराम फरमाए. थोड़ा ‘चिल’ करने की कोशिश में ठंडे पानी से ही नहा लिये. और फिर निकले सैर में. रोहतांग से पहले पड़ता है गुलाबा वहां तक फर्राटा भरते हुए दोस्त की गाड़ी से घूम आए. मस्त खुली हवा, सन्नाटे वाला पहाड़ और अपन. पहाड़ का घुमाव वाला रास्ता अपन का फेवरेट है. बोले तो एकदम दिल से प्यार वाला. इसलिए अपनी यात्रा में डीजे नहीं ब्लूटूथ स्पीकर था. जिसका मज़ा तब है जब इसे स्लो भाल्यूम में बजाओ और बगल में सुनने वाला भी चिलम छोड़ के गाने पे ध्यान देने लगे.

वहां से निकले थोड़ा दिन ढले. उसके बाद गए सोलांग वैली गए. वहां जा के एक कहावत याद आई और जिसने भी लिखा होगा, उस पर गुस्सा भी. कहावत ये है- ”लौटना सुकून देता है…”

तो हमको गुस्सा इसलिए आया कि भई जब हम पहले आए थे यहां तो यहां था बर्फ का पहाड़. खूब लोटे थे बरफ पे. अब था घास का पहाड़. मज़ा किरकिरा.

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खैर, वहां से लौटे तो मॉल रोड घूम के पहुंच गए होटल. अगले दिन तैयारी थी काज़ा जाने की लेकिन रातों-रात की गई रिसर्च ने प्लान की ऐसी धज्जियां उड़ाईं कि अगले दिन रिपीट मोड में ‘दिल के टुकड़े-टुकडे करके…’ वाला गाना सुना. खैर अगला पड़ाव तय हुआ कसोल.

अब जाना था कसोल लेकिन रुके सीधे तोश में. तोश भी जगह ऐसी कि पहले जाने का मन नहीं था और वहां जा के वापस आने का मन नहीं था. मल्लब ये कुछ वैसी ही फीलिंग थी जैसे कोई कांवड़िया रास्ता भटक के हरिद्वार के बजाय कैलाश मानसरोवर पर कमंडल ले के पहुंच गया हो.

खैर, बस, टैक्सी से तोश की धरती पर कदम रखने के बाद तमाम लोगों से पूछते-पूछते एक घंटे तक पहाड़ पर घूमते चकराते उस जगह पहुंचे जहां झरना दिखा. और झरना दिखा तो बैग फेंक के अपन तो कूद लिए. ठंडा पानी खोपड़ी में समाया तो थकान मिट गई. अब अपुन को अच्छा फील होने लगा था. मन तो किया नहा लिया जाए, अपन ने भावना को कंट्रोल किया. फिर तलाश शुरू हुई कैंप की.

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जिस कैंप को ढूंढ़ते हुए हम पहाड़ पर पहुंचे थे उसका रेट सुनकर ही मन किया कि अब या तो वापस लौट जाऊं या फिर जितना पैसा मांग रहा है दे दूं. खैर, बात करने से ही बात बनी और कुल जमा 500 रुपये में भाईसाब ने टेंट दे दिया. उस पहाड़ी कोने पर, झरने के बगल में लगे दो टेंट. यानी टूरिस्ट के नाम पर सिर्फ सन्नाटा था और टेंट वाले का स्टाफ था.

टेंट रेडी हुआ और ऑर्डर देने के 30 मिनट बाद गरमा गरम पराठे आ गए. ठंड तो ठीकठाक थी और उस ठंडक में गरमागरम आलू पराठे खा के ऐसा लगा जैसे हफ्तों से खाना ही नहीं खाया था. अद्भुत था वो.

जैसे-जैसे रात हुई झरने की आवाज़ और ज़्यादा सुनाई देने लगी. जहां दिल्ली में स्याला भकाभक गर्मी थी वहां पहाड़ पे दो रजाई ओढ़ के सो रहा था मैं. गज़ब की नींद आई. सुबह नींद खुली तो सामने हल्की सी रोशनी थी, बादल थे और चिड़ियों की आवाज़ थी. मन किया- अपुन को यहीं बसना मांगता है.

बादलों के बीच योग करते हुए तोड़ा ‘चिल’ किया और 12 बजने से पहले ही निकल पड़े फिर से झोला उठा के.

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थोड़ी दूर चलकर आए तो फिर वही झरना मिला. अबकी बार रहा नहीं गया और अपुन कूद गया झरने के जमा देने वाले ठंडे पानी में. पानी इतना ठंडा था कि लगा अब हाथ पैर शायद ही चलें, लेकिन बाहर निकलते ही जो गज़ब की एनर्जी फील हुई. अपुन फिर से कूद गया.

बहुत देर तक यही चलता रहा. आखिरकार मैंने अपने मन को शक्ति दी और कहा कि निकल लो बेटा यहां से. वरना ठंड लगी तो प्राण निकल लेंगे फिर मचलते रहना इसी पानी में.

ये पूरी ट्रिप का सबसे खूबसूरत और सुकून देने वाला डेस्टिनेशन था. उसके बाद मणिकर्ण, कसोल, कुल्लू सब जगह गया लेकिन मन यहीं टिक गया. कुल्लू में तो अगला पूरा दिन होटल में पड़े-पड़े बिता दिया, लेकिन वहां सब कुछ मिलने के बाद भी ध्यान तो पहाड़ के उसी झरने पर अटका रहा. आज भी वहीं अटका है.

(ये ट्रैवलॉग brajeshmishraa.wordpress.com से लिया गया है.)

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