माजुली के लिए निकलना था. रात में देर से सोए तो सुबह नींद भी उसी तरह देर से खुली. खैर 9 बजे निकले गुवाहाटी से. नया ड्राइवर नई कैब और नया रास्ता. नए-नए दोस्त. गाड़ी काजीरंगा की ओर जाने वाले हाइवे पर दौड़ने लगी और अपन लोग कैमरा, मोबाइल पर दे दानादन क्लिक किये जा रहे बादल, हरियाली खेत, घुमावदार रास्ते.
आखिर एक जगह पेट पूजा के लिए रुके.
नाम था अनुराग ढाबा. अमूमन ढाबे या रेस्टोरेंट पर वेटर पुरुष ही होते हैं लेकिन इसकी खासियत ये थी कि यहां महिलाएं थीं. वो भी ड्रेस कोड में साड़ी में. मुझे अच्छा लगा.
यहां भरपेट पूड़ी सब्जी और पराठे जलेबी खाने के बाद उठे और कैब में पसर गए. बीच में एक जगह रुके जहां चाय के बागान सड़क के दोंने तरफ थे. कैंडिड के नाम पर भर भर पोज दे के कैमरे का मेमोरी कार्ड फुल करने में योगदान दिया.
वहां से आगे बढ़े तो काज़ीरंगा जोन में एंट्री हुई, जंगल की ठंडक भरी हवा में कड़कती धूप भी ज्यादा असर नहीं दिखा पा रही थी. या ये कहूं कि घूमने के एक्साइटमेंट में सब गर्मी, धूप हवा-हवा हो गई थी.
जंगल के बीच से सनसनाते हुए हम पहुंचे नेमाती घाट. यहां से माजुली के लिए फेरी मिलती है. फेरी का इंतजार दो घंटे करना पड़ा. फेरी आई तो पहले उस पर गाड़ियां लदीं फिर इंसान. पहली बार में कोई ऐसा सफ़र कर रहा था.
ये मैं गोवा में करना चाहता था लेकिन वहां ना सही यहां ये बेहद मज़ेदार रहा. समंदर और टाइटेनिक वाला फील आ रहा था. आधे घंटे बाद हम दूसरे किनारे पर थे. वहां से जब गाड़ी में बैठे तो सनसेट हो रहा था. दरअसल फेरी में जब थे तभी सूरज लुढ़कने लगा था.
वहां से कैब आगे बढ़ी और जिस गेस्ट हाउस में रुकना था वहां पहुंचे. कॉटेज देख के दिनभर की थकान मिट गई. पानी से भरे खेत झील की शक्ल लिए थे और उनके ऊपर बनी कॉटेज. बाथरूम से लेकर मच्छरदानी और बेड सबका इंतजाम.
यहां की ग्रीन टी शानदार थी.
थोड़ी देर बैठ के गप्पें हुईं फिर वहां के होस्ट से मिले. बेहतरीन इंसान. जन्माष्टमी का दिन था तो वहां जश्न का माहौल था. देर शाम हम सब वहां होने वाले कल्चरल प्रोग्राम देखने पहुंचे. राम, लक्ष्मण हनुमान जैसे कई किरदार थे और उनके जबरदस्त एक्टिंग.
रात में लौटे तो राइस बीयर सामने थी और मछली. अहा. मज़ा आ गया. देर रात तक माहौल बना रहा. किस्सागोई होती रही. थकान लगभग मिट चुकी थी. खैर एक बजे के आसपास सोने का विचार आया और वो इसलिए कि सुबह पांच के आसपास सनराइज देखना था. प्लान सबका था लेकिन सुबह उठे सिर्फ तीन लोग.
सुबह-सुबह पक्षियों की हल्की आवाज़ और उगता सूरज. ऐसा लगा जैसे कितने सालों से बस इसी की ख्वाहिश थी. हल्की ठंड में काफ़ी देर तक कॉटेज के बाहर बैठा रहा. सूरज थोड़ा और ऊपर आया तो मैं जाकर फिर सो गया. 😉
क़रीब आठ बजे नींद खुली और फिर तैयार होकर निकलने की जल्दी. कॉटेज से निकलकर माजुली की सैर पर चले. माजुली में मिशिंग ट्राइब रहती हैं. उनकी ख़ासियत ये है कि वो पानी के ऊपर घर बनाते हैं और वो ऐसे घर हैं जो बाढ़ में भी टिके रहते हैं. हमने एक-दो घर देखे जाकर. शहरों की बहुमंजिला इमारतों से ज्यादा खूबसूरत और सुकून वाली जगह.
थोड़ा और आगे बढ़े तो एक आर्टिस्ट से मिले जो मास्क बनाते हैं. अलग-अलग देवताओं और दानवों के मास्क. जो घरों में सजाने के काम भी आते हैं और ड्रामा या रामलीला के किरदार भी उन्हें पहनते हैं.
सैर करते-करते दोपहर हो चुकी थी. भूख लगी थी और फेरी भी पकड़नी थी. हम सीधे घाट की ओर बढ़े. फेरी आने में वक़्त था तो वहीं किनारे पर ढाबे में पेट पूजा हुई. और फेरी आते ही उस पर सवार हो लिए. फिर वही टाइटेनिक वाला फील.
दूसरी तरफ पहुंचे और तय किया कि शिलॉन्ग जाएंगे. लेकिन रास्ते में गाड़ी पंक्चर हुई और हमने तय किया कि अब गुवाहाटी में ही रात बिताई जाएगी. देर रात गुवाहाटी पहुंचे. अगली सुबह शिलॉन्ग के लिए निकलना था. इस बीच एक मज़ेदार घटना घटी.
गाड़ी पंक्चर होने और भूत होने की कहानी अगली कड़ी में.
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