अरुणाचल प्रदेश : भारत का एक ऐसा कोना, जो है तो सुदूर में लेकिन सूर्य की किरणें यहीं सबसे पहले अपनी आभा बिखेरती हैं. अपनी विविधता वाली ट्राइबल कल्चर और आर्ट को समेटे यह प्रदेश पूर्वोत्तर के राज्यों में सबसे बड़ा राज्य है. यहां एक तरफ़ हिमालय जैसी अत्यंत ऊंची पर्वतमाला है तो दूसरी तरफ़ पतकाई जैसी छोटी पर्वत श्रृंखलाएं भी. कभी अरुणाचल को नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी- नेफा के नाम से भी जाना जाता था. अगर हम इसके पड़ोसियों की बात करें तो इस राज्य के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में क्रमश: भूटान, तिब्बत, चीन, और म्यांमार देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं हैं. तिब्बत से इसकी सीमा मिलने के कारण कई बार चीन ने इसको साऊथ तिब्बत मान कर इसे अपना हिस्सा बताता रहा है. अरुणाचल प्रदेश की सीमा नागालैंड और असम से भी मिलती है.

अब बात करते हैं इस लेख के ट्रेवलर/लेखक की। वैसे तो प्रकाश कुमार बादल फुल टाइम एक कार्पोरेट जॉब करते हैं। लेकिन दिल इनका घुमन्तू है। ऑफिस में जितनी तेजी से इनकी उंगलिया की-पैड पर चलती हैं उससे भी ज्यादा तेजी ये हिमालयन के एक्सीलेरेटर को खींचने मे दिखाती हैं। उत्तराखंड, हिमाचल से लेकर कन्याकुमारी, केरल तक के रास्ते ये अपनी बाइक- समसारा (हिमालयन) से नाप आए हैं। इनको देशी हनीमून कपल की तरह शिमला, मनाली, गोवा, घूमना पसंद नही है। इनको जाना होता है ऑफबीट डेस्टिनेशन, ऐसी जगहें जो कई बार तो गूगल मैप पर भी नही मिलती। कभी ये बस्तर के अबूझमाड़ में घुस गए तो कभी हेड हंटर नागाओं के गांव में। इनकी ख्वाहिश है कि हर तरह का खाना चखा जाए, हर कल्चर को उसी के रंग मे जिया जाए। इस चक्कर में कई बार यह आऊट ऑफ नेटवर्क भी हो जाते हैं। वैसे लिखने से ज्यादा इनको वीडियो बनाना पसंद है और यू-ट्यूब पर ‘भोजपुरी ट्रेवलर’ के नाम से चर्चित हैं।
यह सिरीज इनके अरुणाचल प्रदेश में बिताये गये दिनों पर आधारित है। वैसे किसी भी देश/प्रदेश के बारे में कुछ पन्नों मे लिख देना बहुत ही मुश्किल काम है। इस सिरीज के पीछे हमारा सिर्फ इतना ही मकसद है कि लोग असल अरुणाचल को जान पाएं, उनकी ट्राइबल कल्चर और लोगों से हम आपको रुबरू करा सकें। अगर लेख अच्छा लगे तो लाइक और फारवर्ड करें।

“मज़ा आ गया, एक नंबर बना है।” रस्सी के सहारे बोतल में बूँद-बूँद टपकते अपाँग को ढक्कन में भरकर उस बुढ़िया ने चुस्की भरी और अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में कुछ इस तरह एक परदेशी के साथ ठट्ठा किया। बुढ़िया बोली, “इसको पीकर सारा बदन दर्द दूर हो जाएगा। आप भी लो, लंबी यात्रा करके आए हो।” मैंने गौर से उसके चेहरे को देखा, जहां हर सिलवट पर ग्रामीण और मेहनतकश जीवन का लेखा-जोखा था।
इस एक ढक्कन अपाँग (अरुणाचल में चावल और मड़ुए की देसी शराब) के साथ अरुणाचल प्रदेश में मिश्मी ट्राइब से मेरा पहला साबका पड़ा। बुढ़िया के बाद उसके बेटे सोसिकपुल (अगर सही से उच्चारण सुन पाया था) ने अपाँग की महिमा के बारे में आगे बताया, “यह बैक गियर मारता है।” मैं चौंका और समझ नहीं पाया तो उन्होंने कहा, “दुकानों में जो शराब मिलती है उसको पीकर आदमी आगे की तरफ़ गिरता है, इसको पीने के बाद पीछे की तरफ़। मतलब यह बैक गियर मारता है।” अपाँग की महिमा का इतना सुंदर बखान सुनकर साहित्यकार कुलाँचे भरने लगें।
सोसिकपुल दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। ऊपर पहाड़ से इलायची के 50 किलो से ज़्यादा वज़नी बोरे बुककर (पूरे अरुणाचल में कुछ भी ढोने को बुकना कहते हैं) नीचे लाते हैं। मार्केट में इलायची 430 रुपये किलो बिकती है। अपाँग उनके इस दर्द और नींद का साथी है। सोसिकपुल ने कहा, “खेत तक पैदल जाने में 3 घंटे लगते हैं। अगर राशन बुककर ले जाऊँगा तो 5-6 घंटे। खेत से आने के बाद एक गिलास अपाँग सारा दुख दूर कर देता है।”

नागालैंड के बाद मैंने अरुणाचल की यात्रा भी इसी नोट पर शुरू की थी कि ग्रामीण और अलग-अलग क़बीले के जीवन को पास से देखना है। और लोहित ज़िले के इस कंजांग गाँव में मुझे भान हो गया कि मैं सफ़र की सही डगर पर हूँ। लोहित, अरुणाचल प्रदेश के 25 ज़िलों में से एक है जिसे पहले मिश्मी हिल्स के नाम से जाना जाता था और बाद में इसका नाम लोहित नदी पर पड़ा। बहुत पहले यह इलाक़ा सुतिया साम्राज्य के अधीन था। मिश्मी क़बीले के मुख्यत: तीन उप-क़बीले हैं- इदु मिश्मी, मिजू मिश्मी, और दिगारू मिश्मी। लोहित ज़िला मुख्यत: मिजू लोगों का घर है। माना जाता है कि ये लोग म्यांमार के कचिन से आए हैं। वही कचिन स्टेट जहाँ के लड़ाके दशकों से म्यांमार के शासन के ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं। ख़ैर, इस बात को यहीं छोड़ते हैं।
मिजू मिश्मी प्रकृति पूजक समाज है, बाक़ी ट्राइब की तरह। मुझे गाँव में सारे घर एक ख़ास पैटर्न में दिखे। चौड़ाई काफ़ी कम और लंबाई बहुत ज़्यादा। जैसे-जैसे बँटवारा होता जाता है, घर की लंबाई बढ़ती जाती है पर चौड़ाई उतनी ही रहती है। मतलब यह कि जो अलग होता है, उसी घर से सटाकर अपना कमरा बनाता जाता है। बताया गया कि सालों पहले एक घर ऐसा था जो रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह दिखाई देता था। लोग दूर-दूर से उसे देखने आते थे। साथ ही, सारे घर ज़मीन से ऊपर उठे हुए। हर घर बाँस का बना हुआ जिसमें घुसते ही सामने रसोई थी और बीच में आग जलाने की जगह। मेहमान यहीं पर इकट्ठा होते हैं और सोसिकपुल के घर में मेरा अड्डा भी यहीं पर जमा।
इत्तेफ़ाक की एक गोखान (गुखान) भी मिल गए। मिजू ट्राइब में गुखान वह व्यक्ति होता है जो किसी के बीमार होने पर पूजा-पाठ कराता है यानी एक पुजारी की तरह। गुखान बिल्कुल निर्विकार भाव से अपने रंग-बिरंगे कपड़ों में बैठे हुए थे। चूँकि वह अपने गुणों का बखान स्वयं नहीं कर सकते थे तो सोसिकपुल ने मोर्चा सँभाला, “यह बस एक-दो लाइन बोलेंगे और बीमार व्यक्ति ठीक हो जाएगा। हम लोग बीमार होने पर सबसे पहले पूजा-पाठ कराता है।” घर में टँगी खोपड़ियों की तरफ़ इशारा करके उन्होंने बताया कि यह सब पूजा करके लगाई गई हैं। गुखान ने गंभीरता का लिबास ओढ़े रखा और अपनी उपस्थिति और मज़बूती से दर्ज कराई।

जब मैं इस परिवार से विदा लेने लगा तो बाँस के चरमराने की आवाज़ से सोसिकपुल का डेढ़ साल का बेटा वीरतोसो उठकर रोने लगा। मैंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया, लेकिन उसने झटक दिया। ख़ुद पर कोफ़्त हुई कि जेब में चॉकलेट या टॉफ़ी क्यों नहीं रखीं। इसी दौरान मेरी होस्ट ने मुझे एक मज़ेदार जानकारी दी, “हमारे यहाँ लड़के के नाम के आख़िर में सो या लुम तो लगाना ही पड़ता है और लड़कियों के नाम में लु या सी।” मैं बोला, लेकिन आपने तो अपनी लड़की का नाम सेजल रखा है। उन्होंने कहा, गाँव में उसे सेजललु के नाम से जानते हैं सब।
विदा लेते वक़्त मैंने बूढ़ी अम्मा से कहा कि शाम में फिर आऊँगा। उन्होंने कहा, “आपके यहाँ भी कल ही अपाँग बनी है। एक गिलास ज़रूर पीना। बाइक यात्रा की सारी थकान दूर हो जाएगी।” मेरे कोरों पर मुस्कान तैर गई।
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