उस मीठी सेल रोटी को कुतरते हुए मैंने सोचा, “चावल (उसी की बनती है यह रोटी) कोई भेदभाव नहीं करता. भूख और ग़रीबी को हम लोग बाँट देते हैं अलग-अलग शक्ल-ओ-सूरत में ढालकर .”

आँगन में लगे लाल रंग के फूल के पौधे से उसने एक पँखुड़ी तोड़ी और कहा, “अभी न हम टीक्का लगाएगा… बड़ा अच्छा लगता है न हमको…” इसके बाद उसने पंखुड़ी को थूक से गीला किया और अपनी भवों के बीच चिपका कर खिलखिलाने लगी। इस तरह अँजाव ज़िले के भारत के आख़िरी गाँव काहो में 7 साल की कुंजन छोदन मेरी पहली दोस्त और गाइड बन गई। उसने कहा, “मैं न अभी खेलने जा रहा है, कल न आपको गाँव घुमाने ले जाएगा।” मैंने अपना कैमरा घुमाया तो वह और पास चली आई। बच्चों से मिलने के बाद कई बार पिता बनने की इच्छा बलवती होने लगती है। लगता है अब उम्र का वह पड़ाव आ चुका है। कुंजन से मुलाक़ात ने दिल के उस तार को फिर से छेड़ दिया था।

दुनिया की कुछ सबसे ख़ूबसूरत जगहों और पुलों से गुज़रकर, वालोंग से क़रीब 30 किलोमीटर दूर जब काहो पहुँचा तो लगा कि ज़िंदगी में जितनी आर्मी आज तक नहीं देखी, उससे ज़्यादा अभी ही देख ली। एक छोटा-सा पुल पार करते ही अचानक आर्मी के जवानों ने रोक लिया और कहा कि आगे जाना मना है। दरअसल, अपनी धुन में खोया मैं उस जगह तक पहुँच गया था जहाँ के बाद आम लोग नहीं जा सकते। चंद किलोमीटर बाद ही एलएसी (भारत-चीन सीमा) था। संवेदनशील इलाक़ा होने की वजह से जवानों ने बातचीत में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। मैंने बाइक मोड़ी और वापस गाँव की तरफ़ आ गया।
हर उस गाँव में रुकने की तमन्ना जहाँ टूरिस्ट नहीं रुकते (या इक्का-दुक्का लोग रुक जाते हैं), मुझे काहो खींच ले गई थी। वालोंग में एक नेपाली महिला दुकानदार ने मुझ पर तरस खाते हुए एक चिट्ठी लिख दी थी अपने रिश्तेदार के नाम कि इस मुसाफ़िर को दो दिन ठहरा लेना। लेकिन वहाँ पहुँचते ही पता चला कि वे लोग तेज़ू निकल गए हैं। काहो में मोबाइल नेटवर्क नहीं था और किसी से संपर्क करने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। हालाँकि, पूर्वोत्तर की इतनी लंबी यात्रा के दौरान मुझे पता चल गया था कि ऐसे समय में किसे पकड़ना होता है। मैं सीधा गाँव के जीबी के घर पहुँच गया। नागालैंड और अरुणाचल में (बाक़ी जगहों का मुझे पता नहीं) जीबी का मतलब होता है- गाम्बुरा। कहते हैं इस शब्द की उत्पति “गाँव का बूढ़ा” से हुई है। जीबी किसी गाँव का प्रधान या मुखिया की तरह होता है। गाँववालों और सरकारी नुमाइंदों के बीच की कड़ी।
बमुश्किल 12-15 घरों के गाँव – काहो के जीबी के घर रुकने का इंतज़ाम हो गया। पता चला कि जल्द ही वह अपना होमस्टे भी बनवा रहे हैं। किसी दिक़्क़त की वजह से घर की बत्ती गुल थी और तय था कि दीपावली की रात मोमबत्ती या इमरजेंसी लाइट की रोशनी में ही गुज़रेगी। जीबी किसी मीटिंग के सिलसिले में बाहर गए थे और उनकी पत्नी और नातिन (बेटी की बेटी) कुंजन थीं बस वहाँ। उनके घर से सामने सीमा के उस तरफ़ चीन का बेस दिखता था और इस तरफ़ आस-पास दिखने वाले हर पहाड़ पर किसी-न-किसी कोने में भारतीय सेना की पोस्ट थीं। 80-90-100 और न जाने क्या-क्या नाम था उनका। सीमा पर, बीच में एक पहाड़ निर्विकार भाव से बिल्कुल उदास खड़ा था। वहाँ पर न भारत था, न ही चीन। मनुष्यों की आपसी सहमति ने उसे अकेला छोड़ दिया था।

काहो के लोग इस गाँव को भारत का आख़िरी नहीं, बल्कि पहला गाँव बुलाते हैं। सीमा पर स्थित किसी गाँव के ऐसे संबोधन से यह मेरा पहला सबका था। मुझे बताया गया कि 1962 से पहले काहो के लोग तिब्बत को टैक्स देते थे। टैक्स के रूप में अनाज और फल-सब्जियों के अलावा और भी कई चीज़ें होती थीं। युद्ध से पहले बेरोकटोक आना-जाना था। युद्ध के समय लोग गाँव छोड़कर चले गए थे और बाद में वापस आए। काहो में मूल रूप से मियोर ट्राइब के लोग रहते हैं जो बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। वालोंग से यात्रा शुरू करते ही मिश्मियों की आबादी कम पड़ने लगती है और मियोर बस्तियाँ शुरू हो जाती हैं।
दीपावली की रात को ध्यान में रखते हुए मैंने वालोंग से ही फुलझड़ियाँ और चॉकलेट ख़रीद ली थीं। कुंजन के साथ उसके घर पहुँचा। उसकी माँ और पिताजी दुकान चलाते थे। माँ मियोर थीं लेकिन पिताजी नेपाली। कुछ महीनों पहले ही पति छोड़कर चला गया था तो उन्होंने दूसरी शादी की थी। एक मुसाफ़िर को ऐसे देखकर बहुत ख़ुश थे और ख़ूब आवभगत की। उनकी दुकान में जिस चीज़ ने मेरा ध्यान खींचा, वे थीं शराब और बीयर की बोतलें। दुकान में जितनी पानी या सरसों तेल की बोतलें नहीं थीं, उससे ज़्यादा शराब थी। बताया गया कि इधर सस्ता है और ख़पत भी बहुत है। बाद में मुझे अरुणाचल के कई सीमाई गाँव में ऐसा ही नज़ारा दिखा। मैं और कुंजन फुलझड़ियाँ जलाने लगे। उसकी फुलझड़ियाँ शायद ख़राब क्वॉलिटी की थीं। बार-बार बीच में बुझ जातीं। मेरी वाली मुर्गा छाप तो नहीं थीं लेकिन बढ़िया थीं। मैंने सारी कुंजन को सौंप दीं।
दुकान पर अचानक एक समूह आया 7-8 लोगों का। वे लोग तय नहीं कर पा रहे थे कि कौन-सी मोमबत्ती लें। सब नेपाली या असमिया कामगार थे जो आर्मी के लिए काम करते थे। एक नेपाली के हाथों में थाली थी जिसमें से उसने कुछ निकाला और मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। मैंने देखा, जबेली के जैसी कोई गोलाकार चीज़ थी। उसने कहा, “हम लोग इसे सेल रोटी कहते हैं। हमारे यहाँ दीपावली और बाक़ी त्योहारों में बनता है। ख़ुशी की बात है कि आप इतनी दूर से, इस मौक़े पर हमारे बीच आए हैं।”

सेल रोटी – साभार गूगल
उस मीठी रोटी को कुतरते हुए मैंने सोचा, “चावल (उसी की बनती है यह रोटी) कोई भेदभाव नहीं करता। भूख और ग़रीबी को हम लोग बाँट देते हैं अलग-अलग शक्ल-ओ-सूरत में ढालकर।” उधर, कुंजन फुलझड़ियाँ जलाने में व्यस्त थी और उसके माता-पिता सौदा करने में। एक घर से, चूल्हे के धुएँ के साथ-साथ हिंदी गानों की धुन निकल रही थी। धुआँ और धुन दोनों थोड़ा ऊपर जाकर, ठंड में दम तोड़ दे रहे थे।
अगले भाग में – “मेरे यहाँ आने की वजह थी गाँव के सबसे बूढ़े शख़्स और चीन युद्ध के संभवत: एकमात्र गवाह-पेसा से मिलने की चाह।”
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