कहानी सुनाने के दौरान बार-बार उस पहाड़ की ओर उंगली दिखाते जो खाली पड़ा था, जिस पर न भारत के सैनिक थे और न ही चीन के। लगता था मानों अपनी ज़िंदगी की ओर इशारा कर रहे हों।
भारत के आख़िरी गाँव काहो में दूसरे दिन सुबह जब गोलियों की तड़तड़ाहट से नींद खुली तो मैं भागकर बाहर आया। बताया गया कि सेना के जवान फ़ायरिंग रेंज में प्रैक्टिस कर रहे हैं। होमस्टे की मालकिन ने कहा, “आप बहुत दिन से घर से बाहर हैं, अगर फ़ोन पर बात करनी है तो इंतज़ाम हो सकता है।” यह सुनकर मैंने अपना सवाल दागा, “लेकिन यहां तो मोबाइल नेटवर्क ही नहीं है, फिर बात कैसे होगी?”

मुझे अनऑफ़िशियली बताया गया कि गाँव में एक-दो फ़ोन ऐसे हैं जिनमें चीन का सिमकार्ड इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ चीन का नेटवर्क आता है। मैं चौंका और पूछा कि चीन का सिमकार्ड कहाँ से मिल जाता है आप लोगों को? चौंकने की वजह भी लाज़मी थी। जिस सीमावर्ती गाँव में एक तरफ़ चीन और दूसरी तरफ़ भारत के जवानों का जमावड़ा हो और इलाक़ा इतना संवेदनशील हो, वहाँ चीन का सिमकार्ड कैसे पहुँच रहा है। किसी के पास इसका स्पष्ट जवाब नहीं था और मुझसे कहा गया कि बंगलोर या किसी जगह से सिमकार्ड लाया जाता है। हर महीने 4 हज़ार रुपए का रिचार्ज़ होता है।
काहो या अरुणाचल के कई सुदूरवर्ती इलाक़ों में जो चीज़ बरबस आपका ध्यान खींच लेती है, वह है वॉकी-टॉकी। हर घर में वॉकी-टॉकी आम है। वालोंग से ही मोबाइल नेटवर्क मिलना बंद हो जाता है और ऐसे में वॉकी-टॉकी के सहारे ही लोग-बाग एक-दूसरे से बात करते हैं। कहने को तो वालोंग और काहो में बीएसएनएल का टावर है, लेकिन इस बात की संभावना नगण्य है कि आप कभी किसी से बात कर पाएंगे। मैंने जब तेज़ू से वालोंग की यात्रा शुरू की थी तो हायुलियांग में ब्लैक में 550 रुपए का बीएसएनएल का एक सिमकार्ड ख़रीदा था जो कभी काम नहीं आया। वह 550 रुपए आज तक अखरते हैं। एक शख़्स ने कहा, “मोबाइल नेटवर्क नहीं है और हमें जब वालोंग या तेज़ू से दुकान के लिए सामान मंगाना होता है तो चीनी सिमकार्ड ही काम आता है। वॉकी-टॉकी लेकर ऊपर पहाड़ पर चले जाते हैं तो कई बार वालोंग तक बात हो जाती है, लेकिन हमेशा नहीं।” वालोंग से काहो की दूरी क़रीब 40 किलोमीटर है। काहो इतना छोटा गाँव (12-15 घर) है कि लोग चिला-चिल्लाकर एक-दूसरे से बात कर लेते हैं।

एक बार जब मैंने अपना मोबाइल निकाला और समय देखा तो चौंक गया। घड़ी में दोपहर के 2.30 बज रहे थे। मैंने सोचा कि इतनी जल्दी इतना वक़्त कैसे निकल गया। थोड़ी माथापच्ची करने पर पता चला कि यह चीन के नेटवर्क का कमाल है जिसकी वजह से चाइनीज़ वक़्त दिखा रहा है। सीमावर्ती इलाक़ों में मोबाइल टावर लगाने संबंधी केंद्र सरकार की नीतियों और प्राइवेट कंपनियों द्वारा इन क्षेत्रों में निवेश करने में रुचि न दिखाने जैसी कई वजहें हैं जिसका ख़ामियाज़ा आम लोग भुगत रहे हैं। काहो जैसे कई गाँव अभी भी एक अघोषित रणक्षेत्र हैं जहाँ ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसे शब्द निष्प्राण हो जाते हैं।
काहो कई कारणों से मुझे कल्पनालोक का कोई गाँव प्रतीत हो रहा था। इतना छोटा गाँव और देखने-जानने को तमाम चीज़ें। कुंजन को साथ लेकर, कई खेतों और पगडंडियों से होकर मैं एक ऐसे घर में पहुँचा जो सबसे अलग और एकांत में खड़ा था। मेरे यहाँ आने की वजह थी गाँव के सबसे बूढ़े शख़्स और चीन युद्ध के संभवत: एकमात्र गवाह, पेसा से मिलने की चाह। जब मैं पहुँचा तो उनकी पत्नी खेत में काम पर लगी थीं। उस खेत में सिर्फ़ मिर्च ही मिर्च लगी थी। मिर्च के अलावा पास के खेतों में मक्का और कोदो की फ़सल लहलहा रही थी। घर के दरवाज़े पर पहुँचा तो उम्र के ढलान पर बैठे पेसा, कुर्सी पर बैठे ऊँघ रहे थे। एक अजनबी और उसके हाथ में कैमरा देखकर थोड़े-से असहज हो गए, लेकिन साथ में कुंजन थी तो थोड़ी देर में असहजता का स्थान मेहमाननवाजी ने ले लिया। छूटते ही मैं बोला, 1962 के युद्ध के बारे में कुछ बताइए। तुरंत अपनी ग़लती का अहसास हुआ और आत्मग्लानि हुई कि किसी के ज़ख़्मों को इतनी निर्ममता से कुरेदने का मुझे कोई हक़ नहीं।

उनकी अस्फुट आवाज़ ऐसी थी जैसे कोई लंबा सफ़र तय करके आ रही हो। मुझे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता मानों वह बोलने के दौरान 1962 से 2021 की दूरी तय कर रहे हैं और इस क्रम में उनकी आवाज़, वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुरूप इतनी लंबी दूरी तय करने में अक्षम हो। कहानी सुनाने के दौरान बार-बार उस पहाड़ की ओर उंगली दिखाते जो खाली पड़ा था, जिस पर न भारत के सैनिक थे और न ही चीन के। लगता था मानों अपनी ज़िंदगी की ओर इशारा कर रहे हों। मैंने पूछा कि सेना की वजह से कोई दिक़्क़त होती है आप लोगों को तो उन्होंने कहा, “बॉर्डर पर है तो हमेशा सोचते रहता है कि चाइना आएगा, अब आएगा। हम लोगों को तो तकलीफ़ दे सकता है न। पहले तो इंडिया (सैनिक) कम था, अब तो ठीक है। अब तो नहीं छोड़ेगा न, तगड़ा कर रहा है। हर जगह इंडिया है अब तो।”
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62 के युद्ध के बारे में बात करने में बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी उनकी। बार-बार कहते, “जो हो गया सो हो गया। इंडिया-चाइना लड़ाई हो गया। उस समय हम लोग छोटा-छोटा था। गाँव में कुल जमा 15 लोग थे। सब गाँव छोड़कर भाग गए थे। तार से लटककर हमने नदी पार की थी।” हालाँकि, तिब्बत का ज़िक्र करना न भूलते और कहते कि पहले हम लोग तिब्बत को टैक्स देता था। उन्होंने कहा, “पहले आना-जाना लगा रहता था। यह इलाक़ा तिब्बत में ही आता था। जब हम लोग टैक्स के तौर पर चावल या अनाज नहीं दे पाते तो जंगल में शिकार खेलना पड़ता था। फिर शिकार किए गए जानवर की खाल देनी पड़ती थी टैक्स के रूप में जिसका वे लोग जूता बनाते थे। अब आर्मी आने से आराम हो गया है। न इधर के लोग उधर जा सकते हैं, न उधर के इधर आ सकते हैं।”

बातचीत के दौरान आंटी ने चाय और पॉपकॉर्न परोस दी थी। उसे निपटाकर जब घर से बाहर निकला तो सामने उस पहाड़ पर नज़र पड़ी जहाँ तीन-चार दिनों से आग धधक रही थी। गाँववालों के बीच यह चर्चा का विषय था कि आग किसने लगाई। कोई कह रहा था कि किसी ने बदमाशी की है तो कोई कह रहा था कि ग़लती से किसी ने लगा दी है। ऊपर उठते धुएँ की वजह से गोम्पा कैंप पर तैनात सैनिकों को चीन की तरफ़ देखने में दिक़्क़त हो रही थी। शायद चीनी सैनिक भी इधर नहीं देख पा रहे होंगे।
…21वीं सदी के इस धुएँ ने सबकुछ ओझल कर दिया था।
अगली कहानी में पढ़े- अरुणाचल के इस छोटे से गांव का नाम तिवारी गांव क्यों पड़ा?
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