किसे भान होगा कि दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा यह मिश्मी और इस तरह के कितने ही आदिवासी हमसे कोसों आगे हैं।
तिवारीगाँव? नाम देखकर चौंका और सोचा कि अरुणाचल में तिवारीगाँव कहाँ से आ गया? मैंने निष्कर्ष निकाला कि बिहार-यूपी से आए लोगों की जनसंख्या यहाँ बहुत ज़्यादा होगी और इसी कारणवश यह नाम पड़ा होगा। जानने की अकुलाहट की वजह से समसारा को रोका और गाँव में घुस गया। यूपी-बिहार के गाँवों को लेकर जो परिकल्पना हमारे ज़हन में है, उससे इतर यह गाँव महज कुछ घरों का था। एक पहाड़ पर पसरे हुए, सुबह की पहली धूप में नींद में कुनमुनाते हुए गिनती के घर, जिनकी रसोई से ऊपर उठता धुआँ बयां कर रहा था कि पेट भरने का वक़्त हो चला है।

“इस जगह का नाम तिवारीगाँव क्यों है, तिवारियों की बस्ती है क्या यह?” वह बोले, मुझे तो पता नहीं सर, मैं भी इधर नया हूँ। सड़क से थोड़ा नीचे उतरकर एक जगह पहुँचा तो हिमाचल के काँगड़ा के एक सज्जन मिले, रोमेल सिंह। मैंने पूछा, तो उन्होंने बताया कि गाँव ऊपर है और जहाँ उन्होंने डेरा डाला है, वह आर्मी का एक पुराना कैंप था। रोमेल सिंह ने आवाज़ लगाई, “ज़रा चाय बनाओ, सर के लिए।” मैंने अनीनी जाने का हवाला देकर कहा कि देर हो जाएगी, रहने दीजिए। उन्होंने वादा लिया कि लौटते वक़्त चाय पीकर और खाना खाकर जाऊँगा। मैंने हामी भरी और सोचा, “लौटना कहाँ हो पाता है। जीवन की पगडंडी जितनी सीधी हो, चलना उतना आसान होता है।” पहली बार किसी अजनबी को चाय के लिए मना किया, वह भी अहले सुबह। तिवारीगाँव के बारे में जानने की उत्सुकता चाय के लोभ पर भारी पड़ी।
सड़क से थोड़ा ऊपर चढ़कर जब एक घर के सामने पहुँचा तो एक इदु मिश्मी टोपी और कोट (इदुकोट) पहने बरामदे में बैठा दिखा। मैंने इशारे से पूछा कि आ सकता हूँ क्या, उन्होंने सहमति जताई। मैं तिवारीगाँव के बारे में सवाल दागता, उससे पहले उन्होंने ही पूछ लिया, “अकेले घूम रहा है, नहीं डरता है?” उनकी हिन्दी बहुत साफ़ थी। नागालैंड के बाद अरुणाचल में घुसते ही ऐसा लगता है मानो घर आ गया। भाषा बहुत जल्दी दूरियों को पाट देती है। नागालैंड में जहाँ अंग्रेज़ी बोल-बोलकर हिन्दी भूल-सा गया था, वहीं अरुणाचल में हिन्दी के बिना गुज़ारा नहीं था। अरुणाचल की हिन्दी पर एक पोस्ट अलग से फिर कभी। उन्होंने बताया कि यहाँ से आगे अब आपको चानघर ही मिलेंगे और पूरा इलाक़ा इदु मिश्मियों का ही है। इदु मिश्मी में पारंपरिक घर को चानघर बोलते हैं।

तिवारीगाँव में कुल जमा 12 घर हैं और कोरोना के वक़्त गाँव के 5 लोगों को यह बीमारी लग गई थी। उन्होंने इस गाँव के नाम का रहस्य उजागर किया, “हम लोग इस गाँव को जिम्बोबेलेस बोलता है। बहुत पहले यहाँ रास्ता बनाने के लिए बिहार से एक अफ़सर आया था जिसका सरनेम तिवारी था। उसकी यहीं पर मौत हो गई। इसी के बाद इस जगह को सबने तिवारीगाँव बोलना शुरू कर दिया। यहाँ पर सब मिश्मी हैं, कोई तिवारी नहीं है।” तिवारी साहब ग्रिफ (GREF) के मार्फ़त यहाँ आए थे। ग्रिफ पर भी एक कहानी अलग से सुनाने का वादा रहा, क्योंकि बिना इसके अरुणाचल का ज्ञान अधूरा रहेगा।
तिवारीगाँव से क़रीब 30 किलोमीटर पहले रोइंग पड़ता है। पहाड़ और जन्नत का सफ़र शुरू होने से पहले का एक छोटा-सा स्टेशन। ऐसे स्टेशन मुझे कभी नहीं भाते। रोइंग यानी लोअर दिबांग ज़िले का प्रशासनिक केंद्र, जहाँ खड़ी नाक और खुली आँख वाले आर्यनों की आबादी इतनी ज़्यादा है कि एक पल को भ्रम होता है कि क्या वाक़ई हम मिश्मियों के इलाक़े में हैं। बाद में मैंने एक परिचित से यूँ ही मज़ाक़ में कह दिया था, “रोइंग का नाम बिहारीगाँव क्यों न हो?” इस टाउन में शायद ही कोई ऐसी दुकान दिखी जहाँ बिहारी न हों। पान की गुमटी से लेकर किराने की दुकान तक, हर जगह बिहार के लोग, बाक़ी असमिया। किसी जगह बमुश्किल चंद मिनट खड़े रहने पर कानों में भोजपुरी के शब्द चले आते थे।
66 साल के उस इदु मिश्मी के इतने बाल थे कि देखकर रश्क़ हो जाए। कद छोटा, लेकिन शरीर कसरती था जो पहाड़ी जीवन के सुख और दुख दोनों का झरोखा था। उनके बाल एक ख़ास स्टाइल में कटे हुए थे जिसे इदु मिश्मी कट के नाम से जाना जाता है। कुछ-कुछ कटोरा कट जैसा और पीछे चोटी बंधी हुई। किसी भी इदु मिश्मी को इसकी बदौलत आराम से पहचाना जा सकता है। मुझे बाद में पता चला कि इसे कई नामों से जाना जाता है जिसमें से एक है पनिशमेंट कट यानी सज़ा के तौर पर काटा गया। इसके पीछे एक किंवदंती है। दरअसल, मिश्मियों का मानना है कि रुक्मणी उनके इलाक़े (भीष्मकनगर) की थीं। जब उन्होंने रुक्मिणी के हरण का विरोध किया तो श्रीकृष्ण ने बतौर सज़ा उनके बाल काटने का आदेश दिया। तभी से इदु मिश्मी इस कट का बाल रखते हैं।
बातों-बातों में काफ़ी वक़्त गुज़र गया था। उन्होंने बताया कि उनका एक बेटा झारखंड के दुमका में पढ़ाई करता है। जब मैंने पूछा कि अकेले मन लगता है तो ठठाकर हँसे और कहा कि बिल्कुल लगता है। मगर चंद सेकंड में ही उस हँसी का स्थान गहरी चुप्पी ने ले लिया। मैं समझ गया और मैंने बात बदल दी। मैंने पूछा, आपकी हिन्दी इतनी अच्छी कैसे है? बोले, “बचपन से ही यूपी-बिहार के लोगों से मिलना-जुलना होता रहा तो सब सीख गया। हिन्दी के अलावा नेपाली और असमी भी बोल लेता हूँ।” उनकी बात सुनकर यही ख़याल आया कि बहुभाषाविद् की हमने जो परिभाषा गढ़ रखी है, वह कितनी ही बेमानी है। किसे भान होगा कि दिल्ली से हज़ारों किलोमीटर दूर बैठा यह मिश्मी और इस तरह के कितने ही आदिवासी हमसे कोसों आगे हैं।

मैं विदा लेने के लिए उठा तो उन्होंने कहा कि बहुत अच्छा लगा आप ऐसे यहाँ रुके, वरना यह गाँव तो मायोदिया और अनीनी के बीच में पड़ने वाली एक जगह मात्र है। बोले, “आपकी बाइक बहुत अच्छी है और आपने सामान भी ख़ूब लाद रखा है।” मैंने कहा, “समसारा नाम है इसका और इसी की बदौलत आज आपसे मिलना हो पाया।”
…मैं सीढ़ियों से नीचे उतरा और वह अजनबी पीछे रह गया, अपने एकांत के साथ।
अगली कहानी में पढ़े– मिश्मियों के स्लेव कल्चर बनाने की प्रथा ।
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