अजनबीयत और परायेपन की दीवार ढाहने में नार्थ-ईस्ट की लड़कियों का कोई सानी नहीं।
चूल्हे के ठीक ऊपर सामान रखने की जगह पर बाँस के दो टुकड़े पड़े थे। मुझे नहीं पता था कि एक में जंगली चूहा और दूसरे में गिलहरी को पकाकर रखा गया है। मेरी होस्ट बबया की बहन ने मुझसे चुहलबाजी की, “चूहे को मारने के बाद उसे भिजाकर (भिगोकर) और नहला-धुलाकर बाँस में डाल देते हैं और चूल्हे के ऊपर स्मोक करने के लिए छोड़ देते हैं। बाद में खाने पर बहुत टेस्टी लगता है।” उधर बबया किसी कोने से एक छोटा सा दाव ले आईं और बाँस को काटने लगीं। मुझसे बोलीं, “आप खाएँगे न? खाइए न बढ़िया लगेगा।” पूर्वोतर में तमाम तरह के माँस खाने के बाद मेरा कोई अलगाव नहीं था उस चूहे को लेकर, पर दिक़्क़त यह थी कि वह चूहा, चूहे की तरह गंध कर रहा था। मैंने मना कर दिया।

दिबांग वैली ज़िले के मुख्यालय और अरुणाचल की सबसे ख़ूबसूरत जगहों में से एक, अनीनी के लिए जब रोइंग से यात्रा शुरू की थी तो हमेशा की तरह रहने का ठिकाना बुक नहीं किया था। अपनी इसी आदत की वजह से हमेशा कुछ अच्छे लोगों के बीच घुसपैठ करने का मौक़ा मिल जाता है। अनीनी पहुँचते ही अँधेरा घिर आया था और मैं लस्त-पस्त सा एक होमस्टे के सामने जा खड़ा हुआ। यहीं मेरी पहली मुलाक़ात हुई बबया से जिन्होंने सांत्वना दी कि आपके रहने का इंतज़ाम हो जाएगा। पूर्वोत्तर, ख़ासकर अरुणाचल में आप कभी भी फँसते हैं, तो लोगबाग आपको अपने घर में जगह देने से नहीं हिचकिचाते।

रोइंग से अनीनी का सफ़र महज 250 किलोमीटर के आसपास है और समसारा पर इतनी लंबी दूरी तय करना बहुत आसान लगता है। लेकिन इटालिन और उससे काफ़ी पहले से, सड़कें इतनी ख़राब हैं कि कई बार कलेजा मुँह को चला आता। लगता अब गए, तब गए। बाइक पहाड़ के किसी कोने पर जब थोड़ी भी झुकती, तो यमराज और उनका भैंसा दिखने लगता। एक जगह तो हालत इतनी ख़राब थी कि लैंडस्लाइड के बीच से गुज़रना पड़ा। क़िस्मत अच्छी थी कि छोटे-छोटे पत्थर ही गिर रहे थे, कोई बड़ा पत्थर नहीं गिरा। रुकते-रुकाते इस दूरी को तय करने में 10 घंटे लग गए।

अनीनी यानी इदु मिश्मियों का घर। लोहित ज़िले में मिश्मी समुदाय के जीवन का जो छोटा सा हिस्सा देखने को मिला था, अनीनी में उसके बड़े रूप से सामना होने वाला था। अगली शाम बबया गाँव घुमाने ले गईं। राजनीति पर बात होने लगी तो पता चला कि मोदी को पसंद नहीं करतीं। मैंने चुहलबाजी की, “आपने मोदी के बारे में जो भी कहा है, सबकुछ वीडियो से हटा दूँगा।” गाँव में एक सज्जन मिले, तेम्बोमेरी, जिनसे बात करके पता चला कि आसपास जितने भी पहाड़ दिख रहे हैं, सबके उनके ही हैं। करोड़ों की संपत्ति के मालिक, लेकिन उनका घर और पहनावा बिल्कुल सादगी से भरे थे। बबया ने कहा, देखिए हमारे यहाँ के करोड़पति की क्या हालत है। तेम्बोमेरी ने भी मौक़ा नहीं छोड़ा और कहा कि हमारे यहाँ के करोड़पति भी लंगोटे में ही घूमते हैं। ठहाकों से माहौल गूँज उठा। मेरे हाथ में कैमरा देखकर बच्चों की तरह हुलसकर अपना कीवी का बाग़ान दिखाने लगे। बताया कि पाँच साल लगते हैं कीवी को फल देने में।
एक पगडंडी से थोड़ा नीचे उतरकर हम बबया की बहन के यहाँ पहुँचे। यहाँ पहुँचते ही बबया ने मेरी ज़बर्दस्त खिंचाई की। बोलीं, “देखिए, हम मिश्मियों के यहाँ बाँस के घर में भी तीन-तीन बच्चे होते हैं। मैं झेंप गया, उनकी बहन के सामने।” दरअसल, मिश्मियों के घर बाँस के बने होते हैं और नीचे फ़र्श भी बाँस का ही होता है। चलने पर बहुत आवाज़ आती है। इसी पर मैंने बबया से मज़ाक किया था कि कपल को तो बहुत दिक़्क़त होती होगी रात में। पूर्वोत्तर और ख़ासकर अरुणाचल में मैंने देखा कि लड़कियाँ बहुत फ़्रेंडली हैं और भरपूर मज़ाक करती हैं। कम से कम दसियों बार तो मेरी खिंचाई हो चुकी थी। अजनबीयत और परायेपन की दीवार ढाहने में इन लड़कियों का कोई सानी नहीं।

चूल्हे के सामने बैठक जमी। मैं, बबया और उनकी बहन। बातों का सिलसिला चल निकला। मुझे बताया गया, “इदु मिश्मी कल्चर में लड़कियाँ जानवर नहीं खातीं, सिर्फ़ मछली और पक्षी खा सकती हैं। इसलिए किचन अलग होता है और जब पति जानवर खाता है तो उसे पाँच दिन तक घुसने नहीं दिया जाता। न कपड़ा छूना है और न ही कोई सामान।” बबया ने चुटकी ली, पाँच दिन के लिए पति आउट। बातों-बातों में इदु मिश्मियों के स्लेव कल्चर (दास बनाने की प्रथा) ऐपो के बारे में जानने को मिला। घर के एक कोने में जहाँ कुछ सिर टंगे हुए थे, उधर इशारा करके बबया बोलीं, “हम लोग जिसे दास बनाना चाहते, उसे पकड़कर पाँच दिन तक इस जगह पर बाँधकर रखते थे। इस दौरान उसे राख खिलाई जाती थी। स्लेव से हम लोग घर से लेकर खेत तक के सारे काम करवाते थे।”
मेरी उत्सुकता का ठिकाना नहीं था। मैंने पूछा कि आपलोग कैसे पहचान करती थीं कि किसे दास बनाना है तो बबया ने कहा, “आपने टाइगर को देखा है न? पहले वह एक कोने में चुपचाप बैठकर चीज़ों को भाँपता है। फिर जो सबसे कमज़ोर जानवर दिखता है उस पर हमला कर देता है। यह सिस्टम भी कुछ ऐसा ही था। जो भी कमज़ोर होता था उसे ही टारगेट किया जाता था, चाहे अपनी रिश्तेदारी में ही कोई क्यूँ न हो। एक बार जो छोटी जात (दास) का हो गया, वह और उसका खानदान बाद में चाहे कितना भी अमीर हो जाए, दास ही कहलाएगा। दूसरे लोग दास के यहाँ शादी नहीं करते, सिर्फ़ कोई और दास ही कर पाएगा।”
बबया ने चौंकाने वाली एक और बात बताई। वह बोलीं, “पहले तो ऐसा होता था कि अगर कोई लड़की अकेले कहीं गई और किसी लड़के ने उसे पसंद कर लिया तो वह उसे पकड़कर रख लेता था। इसके बाद उसके माता-पिता को सूचना दे दी जाती थी और कुछ पैसे, मिथुन या सुअर देकर कह दिया जाता था कि अब मैं इसे रखूँगा।” बबया की बहन बोलीं, “हमारी जान-पहचान की एक नानी हैं। उनको तो बस्ता (बोरे) में बाँधकर ले गए थे।” मेरे लिए यह शॉकिंग था कि लड़की को बोरे में बाँधकर ले जाते थे।
…अरुणाचल उगते सूरज का देश है। लेकिन हर सूर्योदय की तरह यहाँ सूर्यास्त की कई कहानियाँ भी बिखरी हुई हैं। इन्हीं कहानियों की तलाश में है आपका #भोजपुरीट्रेवलर
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