हमारा देश भी गजब है. शिमला में कल बर्फ गिरी है. दिल्ली से जब उड़ान भरी तो तापमान का पारा माइनस में था. और जब गोवा पहुंचा तो ये समझिए कि बस लू नहीं चल रही है. गर्मी ऐसी जैसी होली के आसपास होती है.

मैं कार की सीट पर उतार के रखे अपने कोट को देखता हूं और फिर बाहर की चमकीली धूप को. टी शर्ट भी असहज लग रही है. हमारा ड्राइवर रामा पूछता है- सर एसी चला दूं. मैं खिड़की खोल देता हूं. हवा में खुशनुमा ठंडक है. जैसे विदा होते जाड़े में होती है. पास कहीं समन्दर की हवा का एक झोंका मेंरे चेहरे से टकराता है. मैं ऐसी के लिए मना कर देता हूं. तो आखिर गोवा आ ही गया. घूमने फिरने के शौक के बावजूद गोवा ने मुझे कभी अपनी तरफ नहीं खींचा.
दुनिया भर के बेहतरीन और खूबसूरत समन्दर के किनारे देख चुका हूं. कुछ चीजें इतनी मशहूर हो जाती हैं कि उनका रोमांच खत्म हो जाता है. शायद इसीलिए शोले और इस जैसी कई हिट फिल्में मैंने बहुत बाद में देखी. साफ सुथरी सड़कों के किनारे नारियल और पाम के पेडों का सिलसिला शुरू हो गया है. और उनके साथ गोवन और कहीं कहीं पुर्तगाली शैली में बने घर. छतें लाल खपरैल की और दरवाजे, खिड़कियां, बरामदे सब तकरीबन यूरोपियन ग्रामीण शैली में बने हुए. ज्यादातर घर आरेंज रंग से रंगे हैं. ये रंग शायद गोवा का रंग है. जो तीखी धूप में और चटकीला हो जाता है. ये रंग आंखों को एक खास तरह का सूकून देता है. और देख रहा हूं गोवा का रेतीली मिट्टी भी इतने ही चटकदार नारंगी रंग की है. लेकिन हर घर पर खपरैल की छतें क्यों?
रामा ने बताया कि यहां मानसून में खूब बारिश होती है. कई बार लगातार कई दिनों तक. घपरैल की छतें बारिश के पानी के लिए मुफीद हैं. सबसे अच्छी बात ये कि यहां सड़क या जमीन पर पानी जमा नहीं होता. चाहे कितनी बारिश हो. रेतेली मिट्टी सारा पानी सोख लेती है और वापस समन्दर में भेज देती है. मिट्टी पानी भी खूब सोखती है इसलिए पीने का पानी कुछ फीट पर ही मिल जाता है. अक्सर कुओं में पानी मुंह तक रहता है. घरों के बाहर आपको सीढ़ियां मिल जाएंगी. और टंगे हुए झूले भी और हरियाली के झुरमुठ भी.
देख रहा हूं गोवा पर पुर्तगाल के इतने लम्बे शासन का कितना गहरा असर पड़ा. इमारतों की मुगल शैली या ब्रिटिश शैली यहां आपको कहीं नहीं दिखेगी. भारत यूरोपीय देशों के लिए हमेशा से एक पहेली जैसा था. अरब के मुसलमान भारत के दक्षिणी सिरे में समुद्र के रास्ते आकर न केवल व्यापार करते थे बल्कि भारतीय मुसलमानों को हज यात्रा पर भी ले जाते. वे यहां से हज यात्रियों के साथ मिर्च, मसाले, रेशम और जेवरात आदि अपने यहां ले जाते. ये नाविक हाजियों को जददा में उतारते और माल को यूरोप की स्वेज नहर के मुहाने पर.

स्वेज से ऊंटों पर माल को लाद कर अरबी व्यापारी सिकन्दरिया ले जाते और फिर वहां से पेरिस और वेनिस. भारत के इस माल को वे ऊंची कीमतों पर सारे यूरोप में बेचते थे. दक्षिण भारत के राजा इस व्यापार में बहुत दिलचस्पी लेते थे क्योंकि उन्हें अरबियों से इसके बदले अच्छा टैक्स मिलता था. केरल का कालीकट इस कारोबार का केन्द्र था. यहां अरबों की खूब इज्जत और प्रतिष्ठा थी क्योंकि वे पैसे वाले थे.
यूरोपीय लोग अच्छे से ये जानते थे कि ये सब अरब में पैदा नहीं होता. ये सब सामान अरबी लोग हिन्द से लाकर यूरोप में बेचते हैं. लेकिन हिंद तक वे पहुंचे कैसे? क्योंकि ये देश तीन तरफ से समुन्द्र से घिरा है. ऊपर हिमालय है जिसे पार करके व्यापार करना महंगा सौदा है.
ले देकर आज के पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच करीब पचास किलोमीटर लम्बा एक खैबर का दर्रा था जो भारत को मध्य एशिया से जोड़ता है. इसे भारत का अकेला प्रवेश द्वार कहते थे. एक जगह तो यह दर्रा केवल दस फीट संकरा है. इसी कम्बखत दर्रे से सिकन्दर से लेकर शक-पल्लव, बाख्त्री, यवन, महमूद गजनी, चंगेज खाँ, तैमूर, बाबर आदि भारत में घुसे और भारत में जमकर लूट खसौट की. ऐसे में यूरोप वासियों के लिए भारत पहुंचने के तीन रास्ते थे. पहला रूस पार करके चीन होते हुए बर्मा में पहुंचकर भारत में आना जोकि अनुमान से कहीं ज्यादा लंबा ओर जोखिम भरा था. दूसरा रास्ता था अरब और ईरान को पार करके भारत पहुंचना. लेकिन यह रास्ता अरब के लोग खुद इस्तेमाल करते थे और वे किसी अन्य को इसके अंदर घुसने नहीं देते थे.
तीसरा रास्ता समुद्र का था जिसमें चुनौती देने वाला सिर्फ समुद्र ही था. तो कहते हैं सबसे पहले पुर्तगाल के साहसिक नाविक वास्को डि गामा ने अरब सागर में भारत का समुद्री रास्ता खोजा.

15वीं सदी के अंत में तब बाबर भी भारत नहीं आया था. लेकिन एक दिन अचानक वास्को डिगामा ने अपना भारी भरकम खोजी जहाज कालीकट के किनारे लगा दिया. वास्को डिगामा ने ऐसे दिखाया कि जैसे वह गलती से यहां आ गया है. कालीकट के राजा जमोरिन ने उसका स्वागत किया. वास्को डि गामा को भारतीय राजा को तोहफे में चार जोड़ी यूरोपिया स्टाइल के कपड़े, छह टोपियां, मूंगे के चार जेवर, पीतल के बर्तन वाला एक बक्सा, चीनी की एक पेटी, दो बैरल तेल और शहद की एक कलगी दी.
तब हिन्दुस्तान के राजाओं को सोने चांदी के अलावा कोई और तोहफा समझ में नहीं आता था. लेकिन अरबों के कान खड़े हो चुके थे. उन्होंने राजा को समझाया कि इन यूरोपीयों को हम जानते हैं. पहले ये दोस्ती बढ़ाते हैं और फिर अपनी सेना लाकर राज्यों पर कब्जा कर लेते हैं. राजा नहीं माना और यही हुआ. एक साल के अंदर ही वास्को डि गामा ने पुर्तगाल के तोप बंदूकों से लैस फौजी बेड़े को कालीकट भेज दिया. इस बार वह खुद नहीं आया था. इस बेड़े के लम्बी दाढ़ी वाले कप्तान अलफांसों डि अल्बुकर्क्क ने राजा को तो कीमती तोहफे से नवाजा और अरबियों पर कहर बन कर टूट पड़ा. और देखते-देखते पुर्तगालियों ने केरल से लेकर गोवा तक भारत के पश्चिमी समुन्द्री किनारों पर कब्जा कर लिया. और करीब छह सौ साल से भारत से कारोबार कर रहे मुहम्मद साहब के अनुयायी अरबियों को हमेशा के लिए भारत से खदेड़ दिया.
पुर्तगालियों ने 1500 में कालीकट में अपना किला बनाया और 1506 में गोवा पर कब्जा कर लिया. बाद में मैंने अलफांसों की लम्बी चौड़ी मूर्ति गोवा के पणजी स्थित आर्किलाजिकल म्यूजियम में देखी. अलफांसों गोवा का पहला गर्वनर जनरल बना. इस म्यूजिम में एक नेविगेशन गैलरी भी है. जिसमें सोलहवीं शताब्दी के पुर्तगाली जहाज और लोहे और पत्थर के लंगर के लकड़ी के मॉडल मौजूद हैं. ये नेविगेशन गैलरी प्राचीन काल से गोवा के समुद्री महत्व को उजागर करती है. आप कभी गोवा जाएं तो इसे जरूर देखें. कहते हैं बीस साल बाद वास्को फिर गोवा लौटा गर्वनर जनरल बनकर. गोवा का एक शहर वास्को आज भी इस बहादुर नाविक के नाम से जाना जाता है.
जारी…
(यह लेख वरिष्ठ पत्रकार और लेखक दया सागर ने अपनी गोवा यात्रा के अनुभवों पर लिखा है.)
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